Wednesday, December 29, 2010

लुटना और लूटना...


लो हो गई गुड मॉर्निग, सुबह अखबार उठाते ही रात भर का सुकून काफूर हुआ। जिस पन्ने पर नजर डालो हत्या, बलात्कार, लूट वगैरह-वगैरह..। टीवी चैनलों की तो बात ही क्या कहिए, इनके पास समय ही कहां है जो कुछ काम की बात करें। सास-बहू के पंगे, रियलिटी शो की रैटिंग या कॉमेडी शो से टाइम पास। बचा-खुचा समय विज्ञापन या कभी-कभी खबरें, वो भी अपराध से भरपूर। जहां देखो वहां अपराध ही अपराध। हों भी क्यों ना, नेताओं के अपने घोटाले, नौकरशाह भ्रष्टाचार के मकड़जाल में फंसे, बची पुलिस, सो बेचारी अपराधियों को देखे या वीआईपी सुरक्षा। जाहिर है अपराध तो होते ही रहेंगे, लेकिन माई-बाप नाराज हो गए तो तबादला पक्का। वो भी उस दूर-दराज के गांव में जहां से अधिकारी की चापलूसी करके और नेताजी की जेब गरम करके ही पिंड छुड़ाया जा सकता है। बेचारी जनता, अब कौन इसकी सुध ले? रोजाना दो-चार होना पड़ता है इन अपराधियों से। महिलाओं की सुरक्षा तो राम भरोसे है ही, पुरुष कहां के टार्जन हैं जो इनसे पार पा सकें। सो बेचारे कहीं कार लुटा बैठते हैं तो कहीं घड़ी, चेन या पर्स। आना-कानी करने की हिम्मत तो बिरले ही दिखा पाते हैं। हम जसे तो बेचारे हाथ जोड़ लेते हैं कि सरकार ले लो जा लेना है। कहो तो घर से भी ला दें। बस जान बख्श दो ताकि अगले मोड़ पर खड़े आपके दूसरे भाई-बंधुओं को भी हाजिरी दे सकें। दुर्भाग्य से घर लौटने में अगर रात हो जाए तब तो आपको भगवान ही बचा सकता है या फिर खुद आप। पुलिस की आस न ही रखें तो बेहतर है। वो अपनी ड्युटी में लगी है। अब ये न पूछें कि कहां और कैसे। क्योंकि हमने तो हमेशा यही देखा-सुना है कि पुलिस अपना काम ठीक तरह से कर रही है। टीवी पर या अखबारों में पुलिस के आला अधिकारियों के बयान तो कम से कम यही बताते हैं।
सो समझदारी इसी में है कि बदलते वक्त के साथ जनता खुद को बदल ले और इस अपराधपूर्ण वातावरण में खुद को ढाल ले। अपराध के प्रति नकारात्मक रवैया खत्म किया जाए और इसमें संभावनाओं को तलाशें। सरकार को भी चाहिए कि अपराध को वैध घोषित करे ताकि जनता में स्वावलंबन की भावना विकसित हो, नए अवसरों को सृजन किया जा सके और बेरोजगारों के लिए कुछ करने के दबाव से उसे मुक्ति मिले। पुलिस भी बेमतलब के सर दर्द से मुक्त हो और अपना पूरा ध्यान वीआईपी सेवा और हफ्ता वसूली में लगा सके। देश के अपराधियों में भी भय की भावना खत्म हो और वो खुली हवा में अपराध कर सके। लुटना और लूटना शेयर बाजार की तरह आम हो जाए। भोली-भाली जनता को लूटने पर धनाड्य औद्योगिक घरानों को वर्चस्व समाप्त हो तथा सबको इसके लिए समान अवसर मिलें।

अंदर वाले `बाहरी`


बयान बयान होता है, विवादास्पद होना तो कुछ बयानों का स्वभाव होता है। अब एसे स्वभाविक विवादास्पद बयानंो को अन्यथा लेकर हो-हल्ला मचाना कहां की समादारी है। एसा ही एक गरमा गरम बयान राजनीतिक गलियारों से बाहर निकला, बस फिर क्या था, उसकी गरमी ने मानो दिल्ली की सर्द फिज़ा को ही बदल डाला। बात सिर्फ इतनी सी थी, कि दिल्ली में अपराध के लिये बाहरी लोग जिम्मेदार हैं या नहीं। सुनते ही तैश में आ गए विरोधी, आव देखा न ताव, माफी मांगने का फरमान जारी कर डाला। आखिर प्रवासियों ने एसा क्या कर डाला? मजेदार बात यह है, कि बयान देने वाले मंत्रीजी स्वयं भी प्रवासी हैं। और एक जिम्मेदार गंभीर नेता भी। सो यह बयान न तो मजा़क ही हो सकता है, न साधारण सी भूल। फिर इसका गूढ़ अर्थ तो ढूंढना ही था। बहुत सोचने के बाद दिमाग की हांडी में जो खिचड़ी पकी, उसके स्वादानुसार इस बयान के पीछे मंत्री जी का दर्द भी हो सकता है।
दिल्ली गवाह है कुछ नागवार कारनामों की जो सचमुच बाहर वालों ने ही किऐ हैं। कुछ और छानबीन के लिए जरा फ्लैश बैक में चलते हैं। कुछ वर्ष पहले संसद में प्रश्न पूछने के लिए कुछ सम्मानीय सासंदो ने घूस मांगी, इत्तेफाक से इस अपराध को अंजाम देने वाले ‘बाहरीज् ही थे। बात स्पैक्ट्रम घोटाले की करें, यहां भी मुख्य आरोपी ‘बाहरी` ही हैं। राडिया हो या माधुरी हो या राजा, कई कंलक दिल्ली की छाती पर बाहर वालों के दिए हुए ही हैं। चोट कहीं भी लगे दर्द तो दिल को ही होता हैं। सो देश भर की चोटों का दर्द अपने दिल में लिए बेचारी दिल्ली।
संसद पर हमला हो या बम धमाके, जहां देखो वहां ‘बाहरीज् ही ‘बाहरीज्। दिल डरेगा ही, आखिर दिल तो बच्चा है जी। दिल्ली तो हमेशा स्वागत ही करती है प्रवासियों का, छल फिर भी सहना पड़ता है। अजी दिल्ली ही क्या सारा देश परेशान है बाहिरयों के, अब मुबई को ही लीजिए, बेचारा ठाकरे परिवार तो सूरत भी नहीं देखना चाहता बाहरियों की उनकी नजर में भी सबकुछ बुरा किया धरा बाहरियों का ही है। हालांकि इस बाहरी नजरिये के पीछे वोट बैंक ही नजर आता है।
यही वोट बैंक तो सब कुछ करा देता है। अब बेचारे मंत्री जी तो सब देख ही रहे है, सो निकल गया मुख से जो दिखा। बात को समझने और बिसराने में ही भलाई है। वरना यह ‘बाहरी पुराणज् तो अंतहीन है। सो भैया, नेताजी के कथन का छिपा हुआ अर्थ समाने की कोशिश करो। बात कड़वी जरूर है लेकिन गलती से ही सही कुछ न कुछ तो सच कह ही गऐ मंत्री जी।

Sunday, May 23, 2010

देखो तुम जल जाओ न...


भोर की बातें करो पर,

अन्धकार तुम बिसराओ न,

लक्ष्य चोटी का हो मन में,

धरा को भूल जाओ न,

स्वप्न नैनों में बसें पर,

तुम स्वप्न में बस जाओ न,

आग मन में बेशक रहे पर,

देखो तुम जल जाओ न,








Saturday, May 22, 2010

हाईटेक अमेठी


लीजिए.. गेट्स चाच भी आ गए..। राहुल भैया की कृपा है जो न हो सो कम। मानेंगे थोड़े ही, साइबर सिटी बना कर ही मानेंगे अमेठी को। बड़े जतन किए रात मंगलू, गंगू, हरिया के घर दाल रोटी खा कर मच्छरों के बीच ऐसे ही थोड़े सोए, आज एक एक मच्छर जानता है कांग्रेस और विकास की भाषा। आदमी में अकल जरा कम है, लेकिन समझ जाएगा वो भी। कभी सोनिया, सचिन कभी प्रियंका दीदी,और अब गेट्स चाचा समझाऐंगे कि अमेठी के विकास का रास्ता राहुल भैया के पीछे पीछे चलने से ही मिलेग। बिना बोले इस संदेश को समङो सो समझदार, बाकी अमेठी वासी चाचा से माइक्रोसॉफ्ट के मैनेजमेंट का हुनर सीख कर काम चला सकते है। अब तो घर की ही बात है, चाचा जब चाहे तब अमेठी वासियों पर ‘सॉफ्टज् प्रेम उड़ेलते नजर आ सकते हैं। ऐसे ही कभी दीनू के आंगन में भोला, हरिया, मंगलू और रज्जू के साथ बीड़ी के सुट्टे लगाते दिख जाए तो आश्चर्य नहीं। जाहिर सी बात है भैया तो साथ होंगे ही।

रात को मंगू की झोपड़ी में डिनर का कार्यक्रम है। एक पंगत में चाचा और भैया दाल में रोटी डुबोते देखे जा सकते हैं। इसी समय में भैया चाचा से पूछेंगे कि मंगलू, हरिया, धानी और छुट्टन के नंगे घूमते बच्चों को सॉफ्टवेयर इंजीनियर कैसे बनाया जाए। छोड़ना किसी को नहीं है, एक एक बच्चे बूढ़े को विकास की बाल्टी में डुबा डुबा कर तर करना है। रात को खुले आकाश के नीचे खटिया पर सोने से पहले तक सारा प्लान तैयार। सुबह तक अमेठी का बच्चा बच्चा ‘हाय , आय एम फ्रॉम अमेठी ज् बोलता नजर आऐगा। जहां तक नजर जाएगी इंटरनेट का जाल, साइबर कैफे और सॉफ्टवेयर सेंटरो की भरमार। पहचान भी नहीं पाओगे मुन्ना, कि वही अमेठी है। जिसे देखो अपने लैपटाप पर नैटिंग, चैटिंग और ब्लॉगिंग करता नजर आएगा। तब मत कहना कि मंगू की बेटी पुनिया हरीराम के बेटे लल्लन को ऑरकुट पर ‘लव यजू का स्क्रेप भेजती है। यहां तक तो सब ठीक..लेकिन जब सुदिया का दीनू चाचा से अंग्रेजी में पूछेगा कि चाचा, कौन टेक्नोलाजी से कम्पयूटर चलाओगे जब बहन जी अठारह-बीस घंटा बिजली ही नहीं देगी? अब मोमबत्ती या लालटेन से तो चलने से रहा। चाचा सुनते ही चुप, बगल में बैठे राहुल भैया को ताकने लगे। भैया बगलें झांकते नजर आए..। लो, रह गया साइबर सिटी का सपना बहनजी की वजह से धरा का धरा। अब बेचारे चाचा को मूर्तियां बनाना तो आता नहीं जो बहनजी उन पर मेहरबान हों। रही बात अमेठी की, सो वह तो भैया की रियासत है, उसमें बिजली के सपने न ही देखे तो ठीक, जब सारा यूपी ही इस बिजली नामक फिजूलखर्ची से बचा है।
सो भैया जी एसी कोई जुगत लगे कि जसे कम्पूयटर बाहर से मंगा लाए, वैसे ही कही से बिजली की भी जुगाड़ हो जाए तो चल पड़े हरिराम, मंगलू, सुदिया और दीनू का लैपटॉप, और सारी दुनिया देख ले ऑनलाइन अमेठी के विकास का नजारा।

Wednesday, May 5, 2010

ज़िन्दगी जिंदा है

नई सुबह की आस मे भी ,
हर आम ओ ख़ास में भी,
अनुभव की गर्म रेत पर भी,
रिश्तों की नर्म घास में भी,
तल्खियों की सोच में भी,
प्यार के एहसास में भी,
सूखते फटते खेतों में भी,
चिड़ियों की प्यास में भी,
ज़िन्दगी तब भी जिंदा थी ....
ज़िन्दगी अब भी जिंदा है... ।